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Jan 17, 2013


आध्यात्मिक साधना
बहुत से लोग सोचते हैं कि आध्यात्मिक साधना केवल संन्यासी लोग करेंगे, यह बात बिल्कुल गलत है। संन्यासी और गृही में मूलगत भेद है कि गृही के दो कर्तव्य हो जाते हैं। संन्यासी का एक ही कर्तव्य रहता है। गृही को अपने छोटे परिवार का प्रतिपालन करना होता है, स्त्री, पुत्र परिजन की देखभाल करनी होती है। यह हुआ एक कर्तव्य और द्वितीय कर्तव्य है-इस पृथ्वी के अखंड मानव समाज के कल्याण हेतु उसे कुछ करना पड़ता है। यह हुआ उसका द्वितीय कर्तव्य। इस द्वितीय कर्तव्य को खूब संभालकर संतुलित रूप से करना होगा। कोई व्यक्ति यदि महीने में 1 हजार रुपये की आय करता है और वह यदि 900 रुपये दान कर दे तो उसके पास केवल एक सौ रुपये बचेंगे। इससे उसके परिवार में बड़ी दु‌र्व्यवस्था दिखाई पड़ेगी।
स्पष्ट है कि यह देखकर चलना पड़ेगा कि परिवार की भी देखभाल हो सके और वृहद परिवार के लिए भी थोड़ा-बहुत जो कर सकते हों वह अवश्य करें। दोनों ओर संतुलन बनाकर चलना पड़ेगा। यह संतुलन गृही का कर्तव्य है, संन्यासी का नहीं। संन्यासी के पास जो भी कुछ आता है, वृहत् संसार के लिए वह दान कर देगा। अपना समय भी देगा और जो कुछ अस्थायी संपदा होगी, सब दान कर देगा। संन्यासी की कोई स्थायी संपदा तो होती नहीं है, सब कुछ दान कर देना ही संन्यासी का कर्तव्य है। तो गृही और संन्यासी के जीवन के ऐसे ही नियम हैं। मनुष्य को सभी अवस्थाओं में, सभी उम्रों में धर्म साधना करनी ही होगी। यदि साधना नहीं करता है तो वह मनुष्य लायक नहीं है और यदि करता है तो वह सही अर्थो में बुद्धिमान है। इसी प्रकार से सब लोग अपने कर्तव्य करते जाओ। फिर देखिए, यह जो पृथ्वी है, यह जो धूलि की धरणी है, इसी में हम लोग स्वर्ग को उतारकर ला सकेंगे। अन्य किसी स्वर्ग की खोज में जाने की जरूरत न पड़ेगी। आज से अपने आध्यात्मिक, मानसिक तथा सामाजिक कर्तव्य का पालन आरंभ कर दीजिए। इसी में समाज का और व्यक्तिगत कल्याण संभव है।
[श्रीश्री आनंदमूर्ति]
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(Hindi news from Dainik Jagran, editorial apnibaat Desk)

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